किसी भी स्थान की जलवायवीय एवं भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप प्राकृतिक नियमों के स्थानीय मूल्यों के संदर्भ में, सामुदायिक एकता युक्त जीवन की आनंदपूर्ण अभिव्यक्ति ही संस्कृति है। सांस्कृतिक मूल्य वे हैं, जो जीवन को संस्कारित करते हैं, मूल्यों की उचित समझ को धारित करते हैं एवं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऊध्र्वगामी विकास की दिशा का समर्थन करते हैं ।
जब किसी राष्ट्र की सामूहिक चेतना सतोगुणी हो अर्थात् व्यक्ति प्राकृतिक विधान एवं राष्ट्रीय विधानों का पालन कर रहे हों-तब प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उसकी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करेगा, इसके साथ-साथ उन सब संस्कृतियों को भी समर्थित करेगा, जो राष्ट्रीय जीवन को समृद्ध करती हैं एवं प्रगतिकारक हैं । अन्दर एवं बाहर से किसी नकारात्मक प्रभावों के प्रति उपेक्षा, समस्त राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का होना, इसका स्वाभाविक परिणाम होगा ।
संस्कृति जीवन की प्रफुल्लता एवं राष्ट्रीय अजेयता के निर्माण में एक विशिष्ट भूमिका निभाती है । यह इसलिए है क्योंकि संस्कृति भाषा, वेश-भूषा, भोजन, रीतियों एवं परंपराओं सहित, चेतना में प्रकृति की अभिव्यक्ति है, जो एक विशिष्ट क्षेत्र में विकास एवं शांति को प्रोत्साहित करती है ।
संस्कृति व्यक्ति को प्राकृतिक विधानों के अनुसरण में जीने एवं प्राकृतिक विधानों का उल्लंघन किये जाने के फलस्वरूप नकारात्मक परिस्थितियों से बचाव में सहयोग करती है। जब सामूहिक चेतना सात्विक होती है, तब प्राकृतिक विधान पूर्णतया जीवंत होते हैं एवं राष्ट्र अजेयता को एक सह-उत्पाद के रूप में प्राप्त कर आनंद उठाता है। केवल थोड़ी संख्या में भी चेतना पर आधारित कार्यक्रमों का अभ्यास करने से समुदाय अथवा राष्ट्र में सर्व सकारात्मकता का प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है ।
विश्व के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशेष भौगोलिक एवं जलवायवीय स्थितियां है एवं प्रकृति के इसके अपने नियम हैं। प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र से सम्बन्धित प्रकृति के विशेष नियम उस धरातल पर सांस्कृतिक मूल्य उदित करते हैं । संस्कृतियाँ प्राकृतिक विधान के स्थानीय स्पंदनों की स्थानीय अभिव्यक्ति हैं। सांस्कृतिक मूल्य स्थानीय प्रकृति के विधान एवं परंपराएं उस क्षेत्र में जीवन को संभालती हैं एवं प्रोत्साहित करती हैं। इसीलिए सांस्कृतिक अखंडता की क्षति से तात्पर्य केवल वेश-भूषा, सांस्कृतिक इतिहास अथवा ज्ञान की परंपरागत शैलियों की क्षति मात्रा नहीं है। व्यक्ति की संस्कृति को खोने से तात्पर्य प्रकृति के पोषणकारी नियमों के साथ संबंध को खोना है ।
संस्कृतियों को विश्वभर में संरक्षित किया जा सकता है, अजेय बनाया जा सकता है, उन्हें उनके मूल स्रोत से पुनः जोड़ कर ऐसा किया जा सकता है-विविधता के मूल में एकता, प्राकृतिक विधानों के एकीकृत क्षेत्र, सृष्टि के संविधान को जागृत करके उस धरातल को जीवंत किया जाता है जिस पर वे विकसित होती हैं ।
इसे ‘महर्षि प्रभाव’ उत्पन्न करके सरलता से प्राप्त किया जाता है-प्रत्येक संस्कृति की सामूहिक चेतना में सतोगुण बढ़ाकर, प्रत्येक व्यक्ति की एवं पूरे राष्ट्र की चेतना को तेजवान बनाया जा सकता है। जब जीवन गठित हो, तब जीवन में विविधता प्रपुफुल्लित होती है। प्रत्येक संस्कृति, भाषा, धर्म, एवं जाति सहजरूप से इसकी पूर्णता में उदित होगी, एक अतिसुन्दर, अजेय वातावरण का निर्माण होगा, जो संगठित संस्कृति के प्रकाश से दीप्त होगा ।
जब सामूहिक चेतना सतोगुणी हो जाती है एवं प्रकृति के समस्त नियम जीवंत हो जाते हैं, तब राष्ट्र आनन्दमय होता है, जिसे महर्षि जी ‘संस्कृति के मौलिक सिद्धांत’ कहते हैं । ये हैं स्थिरता, अंगीकारिता, एकीकरण, शुद्धीकरण एवं विकास। ये विशेषताएं प्रगति की सतत परिवर्तनीय प्रकृति को संस्कृति की अपरिवर्तनीय प्रकृति के साथ समन्वित करती हैं
जब राष्ट्रीय चेतना सतोगुणी हो जाती है तब सांस्कृतिक अखंडता प्रफुल्लित होती है और राष्ट्र अन्दर एवं बाहर से किसी भी नकारात्मक प्रभाव के प्रति प्रतिरोधी बन जाता है । एक राष्ट्र जो सुसंबद्ध नहीं है, दुर्बल है, संघर्षों एवं झगड़ों को जन्म देता है। अजेयता से तात्पर्य केवल आक्रमण एवं बाह्य विध्वंस के डर से मुक्ति मात्रा नहीं है, इससे राष्ट्र के अन्दर परस्पर सामन्जस्य एवं प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति भी है । प्रकृति अधिक संतुलित हो जाती है एवं इसके परिणाम स्वरूप ट्टतुएं समय पर आती हैं, फसलें प्रचुरता में होती है एवं कोई भी प्राकृतिक आपदा नहीं आती। जैसे कि बाढ़ एवं सूखा आदि नहीं पड़ते ।
धर्म ही जीवन के स्रोत से पुनः जुड़ने की सर्वोच्च कला और विज्ञान है, जो ईश्वर के प्रकाश में समस्त जीवन के स्रोत की खोज करने के लिए निरन्तर हर स्थान पर सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ एवं सर्वविद्यमान का अनुसंधान करता है । धर्म का आदर्श नित्य जीवन में ईश्वर के प्रकाश को जीना है, जो कि पूर्ण ज्ञान के क्षेत्र, पूर्ण प्राकृतिक विधानों के विज्ञान एवं तकनीकों में, समस्त प्राकृतिक नियमों के समत्व क्षेत्र में विद्यमान है ।
शाश्वत् काल से पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माण धर्मों की उच्चतम अभिलाषा रही है । समस्त धर्म यदि यह शिक्षा देते भी हैं कि स्वर्ग को पृथ्वी पर अवतरित किया जाना है, तो भी इसे केवल उन महान व्यक्तियों द्वारा घटित किया जा सकता है जिनकी चेतना इतनी शुद्ध व विस्तारित हो कि वह प्रकृति की सर्वोच्च बुद्धिमत्ता के साथ एक हो जाये जो, संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है एवं समस्त सृष्टि को धारित करने वाली है ।
प्रबुद्धता के इस स्तर को शाश्वत् वैदिक साहित्य में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, मैं पूर्णता हूँ के रूप में अभिव्यक्त किया गया है एवं विभिन्न धर्मों के पवित्रा साहित्य में यह सिद्धांत सर्वदा प्रकट हुआ है।
धर्म को ईश्वर के प्रकाश के रूप में समझा गया है, जो समस्त सृष्टि के अव्यक्त मूल में शाश्वत् रूप से जीवंत है ।
मनुष्य में ईश्वर का प्रकाश-शुद्ध चेतना, अव्यक्त में आत्मानुभव की क्रिया द्वारा अभिव्यक्त को व्यक्त पदार्थ डी.एन.ए. की आत्मपरक क्रिया में प्रमाणित करती है ।
धर्म के परिप्रेक्ष्य से, शुद्ध चेतना के संगठित क्षेत्र की यह आत्म-परक क्रिया ईश्वर की इच्छा है, जो समस्त सृष्टि को जन्म देती है एवं ईश्वर की छवि में मनुष्य को निर्मित करती है ।
प्रत्येक धर्म के सच्चे अनुयायी महर्षि प्रणीत भावातीत ध्यान के मूल्य को अपने धर्म के बहुमूल्य ग्रन्थों में अभिव्यक्त पाते हैं । धर्म मनुष्य एवं ईश्वर के मध्य संबंध को स्थापित करता है, वहीं महर्षि प्रणीत भावातीत ध्यान मनुष्य को उसको स्वयं एवं उसके पर्यावरण के साथ के संबंध को जीवंत एवं शुद्ध करता है ।
इस सिद्धांत के प्रकाश में, यह आश्चर्यजनक नहीं है कि सभी धर्मों के अनेक धर्मगुरु उनके अपने जीवन में भावातीत ध्यान की तकनीक को अपनाते हैं एवं अपने अनुयायियों के लिए इसकी अनुशंसा करते हैं, अपने धर्म को सशक्त करने एवं पृथ्वी पर स्वर्ग के निर्माण के साधन के रूप में ।
भावातीत चेतना का अनुभव, जिसे महर्षि के भावातीत ध्यान तकनीक द्वारा सरलता से प्राप्त किया जाता है, समस्त धर्मों के पवित्रा ग्रंथों में एवं समस्त संस्कृतियों एवं परंपराओं के लेखन में संतों द्वारा स्पष्टतया अभिव्यक्त है ।
महर्षि की पृथ्वी पर स्वर्ग निर्माण की मुख्य योजना, समस्त धर्मों के पवित्रा ग्रंथों की पवित्राता से अनुमोदन का आनंद लेते हुए ईश्वर की इच्छा से प्रामाणिक है । शीघ्र ही पृथ्वी पर स्वर्ग सबके लिए एक वास्तविकता होगी-यह व्यक्ति का अपना स्वर्ग व्यक्ति के अपने धर्म द्वारा निर्मित होगा ।
सनातन धर्म
‘ओ अर्जुन, तीनों गुणों से रहित हो जाओ, द्वैत से मुक्त, शुद्धता में सदा स्थापित, मोह से मुक्त, आत्मा में स्थित हो जाओ । भगवद्गीता-II:45
‘बार-बार उन्होंने अपना ध्यान पुनः राम में लगाया। जो उसके अपने हृदय में विद्यमान हैं।’ तुलसीदास रामायण, सुन्दर काण्ड, V:3
जूडाइज्म
‘स्थिर हो, एवं जानो कि मैं ईश्वर हूं ।’ प्साल्म 46:11
शिन्टोइज्म
‘दूर आकाशों में ईश्वर की खोज न करें । मनुष्य के अपने हृदय में वह पाया गया है ।’ शाओ युंग
‘मानव मन, दिव्यता का अंश है, देवता का एक महल है, वही आध्यात्मिक सार है । मानव मन के परे कोई उच्चतम देवता विद्यमान नहीं है ।’ शिन्टो डिंजु
कन्फ्रयूसियनिज्म
‘अविकसित मनुष्य बाह्य की ओर खोजता है, उन्नत मनुष्य स्वयं को-आत्मा को खोजता है।’
बुद्धिज्म
यह केवल तभी है जब समस्त बाह्य दृश्यों का लोप हो जाये एवं जीवन का केवल एक सिद्धांत शेष रह जाये, जो समस्त बाह्य दृश्यों के परे स्वतंत्रा रूप में विद्यमान है ।’ परिनिर्वाण सूत्रा- XXXIX
ईसाई धर्म
‘ईश्वर का साम्राज्य तुम्हारे अन्दर है ।’ लूक 17:21 ‘धार्मिक जीवन की किसी गतिविधि का तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक यह तुम्हारे अस्तित्व की ओर ‘स्थिर केन्द्र’ की ओर अन्तर्मुखी न हो, जहां ईसा है ।’-पोप जाॅन पाल-प्प् मेयनूथ आयरलेंड, 1 अक्टूबर, 1979 ।
इस्लाम
‘तुम वो करो (ओ पाठक!) अपने भगवान को अपनी मूल आत्मा में स्मरण करो, विनम्रता एवं श्रद्धा के साथ, बिना शब्दों के उच्चारण के अर्थात् भावातीत की चेतना में, प्रातः एवं सायंकाल में ।’ कुरान 7:205
ये समस्त अनुभव चेतना के अनुभव हैं। ये शुद्ध ज्ञान का गठन-शाश्वत् वेद-चेतना में निहित हैं, ज्ञान के समस्त प्रवाह, संगठनात्मक शक्ति के पूर्ण प्रवाह एवं अनुभव के समस्त मूल्य हैं।
समाज में सांस्कृतिक समूहों के मध्य संघर्ष प्रतिदिन अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है । सरकारें राष्ट्रीय पहचान के विखंडन को अनुभव कर रही हैं, तनाव एवं दबावों के अन्तर्निहित कारणों से चिंतित हैं जो अब राष्ट्र के लिए गंभीर समस्या बनते जा रहे हैं ।
संपूर्ण संसार में सरकारें इस चुनौती से जूझ रही है कि बढ़ती विविधता के मध्य अपने नागरिकों के लिए एकता को कैसे संधारित किया जाये । यह भली-भाँति ज्ञात हो चुका है कि जातीय एवं सांस्कृतिक समूहों के आन्दोलन-चाहे वे राष्ट्र के अंदर हों अथवा एक राष्ट्र से दूसरे तक हों, इन्होंने पहचान एवं जीवन शैली में विभिन्नता ला दी है, परिणाम स्वरूप समन्वयकारी संस्थाओं पर नकारात्मक प्रभाव, दबाव एवं तनाव, संघर्ष एवं हिंसा में बदल जाने के लिये बार-बार उछाल ले रहे हैं संस्कृति, भाषा, धर्म एवं परंपराओं के विभाजनों के लक्षण भी परिलक्षित हो रहे हैं ।
यह भयावह स्थिति अपूर्ण शिक्षा का प्रत्यक्ष परिणाम है, जो मस्तिष्क को समग्र रूप में कार्यशील होने के लिए प्रशिक्षित नहीं करती । महर्षि जी ने चेतना के विकास के लिए एवं मस्तिष्क संरचना की पूर्ण सामथ्र्य को जागृत करने के लिए सरल किन्तु प्रभावी शैक्षणिक तकनीक प्रदान की है । जब मस्तिष्क पूर्णतया जाग्रत होता है एवं सुसंबद्धता में कार्यशील होता है, तब व्यक्ति विविधता के मध्य भी एकता को अनुभूत करता है ।
वैज्ञानिक शोध दर्शाते हैं कि वे सांस्कृतिक अखंडता-स्थिरता, अंगीकारिता, एकीकरण, शुद्धीकरण एवं विकास के मौलिक मूल्यों में अधिकाधिक प्रगति करते हैं एव समाज में सामन्जस्य की अभिवृद्धि करते हैं । उनके विचार एवं कार्य प्रकृति की विकासात्मक चेतना के साथ अधिक समन्वयकारी हो जाते हैं, जो सृष्टि की अनन्त विस्तारित विविधता को धारित करती है । ऐसे व्यक्ति बाह्य प्रभावों द्वारा भयभीत नहीं होंगे बल्कि विभिन्नताओं के मध्य भी एक व्यक्तिगत पहचान को बनाये रखने में सफल होंगे ।
इस आधार पर व्यक्ति की सुसंबद्ध एवं समग्र मस्तिष्कीय कार्यप्रणाली समाज की सुसंबद्ध कार्यप्रणाली के रूप में अभिव्यक्त होगी, जो किसी भी नकारात्मकता को अन्दर से अथवा राष्ट्र के बाहर से आने से रोकेगी ।
समस्त संस्कृतियां सुरक्षित एवं समृद्ध अनुभव करेंगी, वे समाज में विभिन्न संस्कृतियों के मध्य अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाये रखने में समर्थ होंगी, समस्त समुदाय अपनी एकता और अखंडता का आनंद लेंगे एवं इसके साथ-साथ अन्यों के प्रति भी सद्भावना रखेंगे ।