वेद से तात्पर्य ज्ञान से है, वैदिक मार्ग से तात्पर्य उस मार्ग से है जो ज्ञान-पूर्ण ज्ञान-शुद्ध ज्ञान- प्राकृतिक विधान के पूर्ण सामथ्र्य पर आधारित है, यह सृष्टि एवं प्रशासन का मुख्य आधार है, जो सृष्टि की अनन्त विविधताओं को पूर्ण सुव्यवस्था के साथ शासित करता है इसीलिये वेद को सृष्टि का संविधान भी कहा गया है । प्राकृतिक विधान की यह आंतरिक बुद्धिमत्ता व्यक्तिगत स्तर पर मानव शरीरिक की संरचना एवं कार्यप्रणाली का आधार है एवं साथ ही वृहत स्तर पर यह ब्रह्माण्डीय संरचना-सृष्टि का आधार है । जैसी मानव शरीरिकी है, वैसी ही सृष्टि है ।
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर के अन्दर विद्यमान इस आंतरिक बुद्धिमत्ता को इसकी पूर्ण संगठन शक्ति को प्रदर्शित करने एवं मानव जीवन एवं व्यवहार को प्राकृतिक विधानों की ऊध्र्वगामी दिशा में विकास करने के लिए पूर्णतया जीवंत किया जा सकता है, ऐसा करने से कोई भी व्यक्ति प्राकृतिक विधानों का उल्लंघन नहीं करेगा एवं कोई भी व्यक्ति उसके स्वयं के लिए अथवा समाज में किसी अन्य व्यक्ति के लिए दुःख का आधार सृजित नहीं करेगा। जब हम वैदिक प्रक्रियाओं द्वारा बुद्धिमत्ता को जीवंत करते हैं, तो हम उसके साथ ही जीवन के तीनों क्षेत्रों आध्यात्मिक (चेतना का भावातीत स्तर), आधिदैविक (चेतना का बौद्धिक एवं मानसिक स्तर) एवं आधिभौतिक (वह चेतना जो भौतिक शरीर-भौतिक सृष्टि को संचालित करती है) को एक साथ जीवंत करते हैं ।
प्राकृतिक विधान की पूर्णता ही प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा है। यह अव्यक्त एवं भावातीत है क्योंकि उस स्तर पर इसमें चेतना की समस्त संभावनायें जाग्रत रहती हैं-यही चेतना की पूर्ण आत्मपरक अवस्था- आत्मनिष्ठता, वस्तुनिष्ठता एवं उनके संबंधों के समस्त मूल्यों की एकीकृत अवस्था होती है ।
चेतना की इस पूर्णतायुक्त आत्मपरक प्रकृति को बुद्धिमत्ता के 40 गुणों के संदर्भ में भली-भांति विश्लेषित एवं परीक्षित किया गया है जिसे वैदिक साहित्य के 40 क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया है एवं महर्षि जी के दिव्य मार्गदर्शन में इन 40 क्षेत्रों को वैज्ञानिकों द्वारा मानव शरीरिकी के आधार में खोज निकाला गया है ।
इस वैज्ञानिक खोज ने हमें यह स्पष्ट समझ प्रदान की है कि प्रत्येक व्यक्ति जीवंत वेद है-प्रत्येक व्यक्ति वेद की ही अभिव्यक्ति है एवं इस समझ के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि - वैदिक पद्धति जीवन में एकीकरण, पूर्णता एवं प्रगति की प्रत्यक्ष पद्धति है। यही प्राकृतिक विधान का अनुसरण वाला जीवन-त्राुटियों रहित जीवन व समस्याओं एवं दुःखों से रहित जीवन है। इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमें वैदिक मार्ग अपनाना चाहिए, हमें वैदिक ज्ञान के आधार पर व्यक्तियों, समाज एवं भारत को आदर्श बनाने के लिए अपनी योजनाएं एवं कार्यक्रम बनाने चाहिए ।
ऋषि, देवता एवं छन्दस गुणों के अनुसार महर्षि जी ने वेद एवं वैदिक वांगमय के समस्त 40 क्षेत्रों को एक लेखचित्र में रचा है। (कृपया संलग्न चार्ट देखें) ये 40 क्षेत्र निम्नवत् हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, निरुक्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, कर्म मीमांसा, योग, गंधर्ववेद, धनुर्वेद, स्थापत्य वेद, काश्यप संहिता, भेल संहिता, हारीत संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, वाग्भट्ट संहिता, भावप्रकाश संहिता, शाघ्र्गधर संहिता, माधव निदान संहिता, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, स्मृति, पुराण, इतिहास, ट्टक् वेद प्रातिशाख्य, शुक्ल यजुर्वेद प्रातिशाख्य, अथर्व वेद प्रातिशाख्य, सामवेद प्रातिशाख्य (पुष्प सूत्राम्द्ध, कृष्ण यजुर्वेद प्रातिशाख्य (तैत्तिरीय), अथर्व वेद प्रातिशाख्य (चतुरध्यायी)।
कला, विज्ञान आदि ज्ञान के क्षेत्रों का उद्भव वेद एवं वैदिक साहित्य के इन 40 क्षेत्रों से ही हुआ है। इसलिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि जो कोई भी ज्ञान के किसी भी क्षेत्र का अध्ययन करे, उसे वेद-पूर्ण ज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। ज्ञान के एक विशिष्ट क्षेत्र का अध्ययन अपूर्ण है । यह पूर्णता से, जीवन की वास्तविकता से परे है । आज प्रत्येक क्षेत्र में असफलता का यही मूल कारण है। अधूरा ज्ञान भयानक होता है। यह समस्त असंतुष्टि, दुःख, तनाव, दबाव, अशांति, बीमारी, अपराध, संघर्ष, युद्ध, आत्महत्या एवं व्यक्तियों की, समस्त राष्ट्रों की, समस्त धर्मों, समस्त विश्वासों एवं निष्ठा की तथा कई और प्रवृत्तियों की असफलताओं का मूल कारण है ।