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Vedic Agriculture - Organic Farming

सुखी जीवन के लिए स्वस्थ भोजन

वैदिक कृषि को दीर्घकालिक, जैविक कृषि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो किसान, मिट्टी एवं बीज में शुद्ध, स्वस्थ भोजन और जीवन के लिये पोषणकारी प्रभाव उत्पन्न करती है। वैदिक जैविक कृषि प्राकृतिक विधान के सामन्जस्य युक्त कृषि है । यह कृषि की वह प्रणाली है जो किसान, उसकी फसल, एवं पर्यावरण का बड़े स्तर पर पोषण व समर्थन करती है ।

कृषि में पूर्णता की अभिव्यक्ति लाने के लिए हम इसे वैदिक जैविक कृषि कहते हैं। जैविक में ‘वैदिक’ शब्द जोड़ा गया है क्योंकि वैदिक ज्ञान पूर्ण ज्ञान है। वैदिक जोड़ने से तात्पर्य पूर्ण ज्ञान की संगठन शक्ति को कृषि के क्षेत्र में प्रयोग करना है। वैदिक जैविक से तात्पर्य उस जैविक कृषि से है जो वेद और वैदिक वांगमय की ध्वनियों के द्वारा-प्राकृतिक नियमों द्वारा पोषित है । जैविक कृषि में जोड़ा गया ‘वैदिक’ तत्व, कुशलता तत्व, चेतना तत्व, प्रकृति की रचनात्मकता का वह तत्व है जो पौधों के विकास की विभिन्न अवस्थाओं एवं पोषक तत्वों का सहायक होता है ।

जब से परंपरागत कृषि एवं जैविक कृषि के मध्य अन्तर को समझा गया, तबसे पोषणीय तत्व में वृद्धि के लिये वेद को जोड़ा गया जिससे हमारे द्वारा ग्रहण किये जाने वाला भोजन अधिक से अधिक पोषणकारी हो जाये। इसीलिए वैदिक कृषि के द्वारा सर्वाधिक पोषणकारी गुणवाले पदार्थ उगाने हैं ।

यह ‘जैविक’ एवं ’वैदिक’ कृषि के क्षेत्र में वेद का उपहार है जिससे ‘वैदिक जैविक कृषि’ बनी। वैदिक जैविक कृषि व्यक्ति एवं प्रकृति के मध्य, व्यक्ति एवं समष्टि के मध्य संबंध को प्रगाढ़ करती है। वैदिक जैविक कृषि की तकनीक व्यक्ति एवं सामूहिक जीवन का संतुलन इस तरह से बनाती है कि इसके परिणाम स्वरूप प्रकृति संतुलित एवं सहयोगी बन जाती है ।

वैदिक जैविक कृषि को अपने कार्यक्रमों में शुद्ध जैविक भोजन के लिए अत्यन्त कड़े मानकों को सम्मिलित करना चाहिए, जो वर्तमान जैविक मानकों से उत्तम हों । महर्षि जी द्वारा पुनः प्रकाशित प्राचीन वैदिक कृषि तकनीकों के प्रयोग द्वारा, किसान उच्चतर चेतना तक उठ सकते हैं एवं प्रकृति के समस्त नियमों के सामन्जस्य में जीवन जी सकते हैं ।

वैदिक ध्वनियों का प्रयोग

वेद एवं वैदिक साहित्य की ध्वनियों का प्रयोग पौधों की आंतरिक क्षमता में वृद्धि करने के लिए किया जाता है जिससे प्राकृतिक गुणों से भरपूर उत्पादन हो और किसान के लिए एक स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण हो और वह प्रचुरता से स्वस्थ कृषि उत्पाद दे सके ।

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प्राकृतिक विधान प्रकृति की वो रचना हैं, जिनमें सृष्टि एवं विकास, जीवन एवं सृष्टि के चक्रों के लिए उत्तरदायी प्रकृति के समस्त नियम समावेशित हैं ।

प्राकृतिक नियमों के सृजनात्मक स्पन्दन, वैदिक स्पन्दन हैं जो पौधे के विकास एवं इसके अंदर पोषक तत्वों के लिए आवश्यक विकासशीलता के लिये प्राकृतिक नियमों को धारण करते हैं ।

ध्वनि के 40 मूलभूत वैदिक क्षेत्र हैं, जो पौधे की संरचना एवं गुणों को निर्मित करते हैं, पौधे की संरचना एवं गुणवत्ता को सृजित करते हैं । गुणवत्ता की ये 40 वैदिक ध्वनियाँ प्रकृति के वो नियम हैं जो पौधे के बीज में केन्द्रित होते हैं । जैसे ही बीज प्रस्फुटित होता है, वेद की ये चालीसों ध्वनियाँ एक साथ समग्रता पूर्वक पौधे के प्रत्येक रेशे और पूरे पौधे के विकास को करने में जुट जाती हैं। ये 40 ध्वनियाँ पौधे की अव्यक्त मूर्त गुणवत्ता से रस की अव्यक्त गुणवत्ता से उद्भूत होते हुए पौधे केे पदार्थीय स्वरूप को अभिव्यक्त करती हैं। शुद्ध गुणों युक्त वेद की ये 40 ध्वनियाँ पौधों को सुनाने पर इन्हें पूर्णता में विकसित कर देती हैं ।

वैदिक ध्वनि के उपचारात्मक एवं पोषणीय प्रभाव को वैज्ञानिक शोधों द्वारा, न केवल मानव जीवन में, बल्कि पशुओं एवं पौधों के विषय में भी प्रमाणित किया गया है। जब प्रकृति की ध्वनियां प्राकृतिक विधानों के ये गान, वेद की ध्वनियां गायी जाती है, तो वे प्रकृति की ध्वनियों के साथ मिलकर इसके ड्डोत से जीवन को सजीव एवं पुलकित करती हैं एवं व्यक्ति से ब्रह्माण्डीय स्तर तक विकास में अभिवृद्धि करती है । वैदिक ध्वनियाँ (वैदिक मंत्राोच्चारण) इस तरह से व्यवस्थित हैं कि पौधे के विकास के प्रत्येक स्तर पर, उस स्तर के विकास को पूर्णतया प्रफुल्लित करने के लिए उपयुक्त संगीत दिया जाता है, ताकि प्रत्येक चरण में पौधा अपनी संरचना एवं गुणवत्ता की पूर्णता में विकास करे, इसके पूर्ण पोषणीय एवं जीवन समर्थक मूल्यों को संरक्षण प्राप्त हो ।

स्वार्गिक जीवन के निर्माण हेतु पूर्ण प्राकृतिक विधानों का उपयोग

वैदिक जैविक कृषि का एक सिद्धांत प्रकृति के कुशल हाथों को नियोजित करना है, कृषि उत्पादन को प्रभावित करने वाले घटकों की अत्यन्त जटिल संरचना को शांतता से व्यवस्थित करने के लिए पूर्ण प्राकृतिक विधानों का उपयोग करना है। वैदिक जैविक कृषि, प्राकृतिक विधानों की पूर्ण रचनात्मक सामथ्र्य को कृषि के प्रत्येक स्तर में अभिव्यक्त करती है । प्रकृति के समस्त नियम मृदा, बीज, ट्टतुयें एवं किसान के सहयोग के लिए सहायक होते हैं, ताकि ट्टतुएं समय पर आयें एवं फसलें प्रचुरता में हों ।

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भारत में एवं विश्व बाजार में जैविक कृषि उत्पादों की मांग बढ़ती जा रही है । अत्यन्त सरल वैदिक सिद्धांतों, प्राकृतिक विधानों को जैविक कृषि में जोड़ने से भारतीय किसान कृषि के क्षेत्र में क्रांति ला सकते हैं । वे सर्वोत्तम किसान हैं, प्राकृतिक कृषि का आधारभूत ज्ञान रखते हैं एवं अत्यन्त सरलता से वैदिक जैविक कृषि प्रक्रियाओं को आत्मसात कर सकते हैं । वैदिक जैविक कृषि आत्म निर्भरता लायेगी, नागरिकों को और भारतीय शासन को राहत प्रदान करते हुए किसानों को अतिरिक्त आनंद प्राप्त होगा ।

हाल ही के वर्षों में, कृषि की आधुनिक प्रणालियों ने ऐसी प्रविधियां विकसित की हैं जिनमें प्रकृति के नियमों का आंशिक उपयोग किया है, बीज एवं फसलों की आनुवंशिक विशेषता को परिवर्तित करने के लिए, मृदा संरचना को परिवर्तित करने के लिए एवं कृषि भूमि के अन्तिम छोर तक को उपयोग में लाने के लिए ये विधियां अपनायी गयी हैं। तथापि, प्राकृतिक विधानों के आंशिक उपयोग के कारण से, प्रकृति में असाधारण असंतुलन की स्थितियां निर्मित हुई हैं, जैसे कि मृदा कटाव, क्षरण, एवं विषैले उर्वरकों एवं कीटनाशकों के हानिकारक प्रभावों से आनुवंशिक विनाश हुआ है। कोई ऐसी आधुनिक तकनीक उपलब्ध नहीं कराई गई है जो प्रकृति के नियमों का समर्थन सुनिश्चित करे और कृषि में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक-ट्टतुओं को समय पर आना सम्भव करा सके ।

पृथ्वी सतत रूप से अपनी विखंडित सतह को छोड़ देती है एवं पथरीली भूमि के नीचे से मृदा की अपनी जीवंत सतह को पुनः धारण करती है । जब तक यह संतुलन बाधित नहीं होता, एक परिपक्व मृदा अधिक अथवा न्यून रूप से एक सतत गहराई एवं स्वरूप तक अनिश्चित समय तक अपना संरक्षण करती है । मृदा क्षरण मानव कुप्रबंधन द्वारा तीव्रतर होता है, जब मृदा के संतुलन को आक्रामक कृषि तकनीकों द्वारा, अनियंत्रित वनों की कटाई अथवा अत्यधिक निकासी/पैदावार से प्राकृतिक संपदा का विनाश करके क्षति पहुंचायी जाती है। मृदा का क्षरण मानव समाज एवं पर्यावरण के मध्य- असामन्जस्य का आधुनिक लक्षण है ।

यह सौभाग्य की बात है कि संसार में रासायनिक कृषि की अत्यन्त प्रदूषित एवं हानिकारक प्रक्रियाओं के प्रति जागृति आई है एवं आनुवांशिकीय परिवर्तनयुक्त भोजन को उगाने एवं खाने के गंभीर परिणामों को लेकर लोग सचेत हुये हैं । रासायनिक रूप से उगाये गये एवं आनुवांशिक परिवर्तनयुक्त भोजन के खतरों के प्रति लोगों का मत विपरीत वृद्धि कर रहा है। असंख्य शोध अध्ययनों में मृदा क्षरण, बीज एवं मौसम के असंतुलनों को, जो इन हानिकारक कृषि प्रणालियों के कारण से है, प्रमाणित किया गया है । इन समस्त हानिकारक परंपराओं को वैदिक जैविक कृषि प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा रोका जा सकता है । समस्त अन्य संगठन जो कृषि की जीवन पोषणीय तकनीकों को प्रोत्साहित करते हैं, इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । जैविक कृषि पर आधुनिक वैज्ञानिक शोध एवं प्राचीन वैदिक साहित्य में उपलब्ध महत्वपूर्ण वैदिक तकनीक वैदिक जैविक कृषि के लिए प्रकाश पुंज हैं। वैदिक कृषि पर समस्त साहित्य में ज्ञान के समस्त मूल्यों पर चेतना व शरीर के समस्त क्षेत्रों पर विचार किया जाता है, जिससे व्यक्तिगत स्तर पर एवं समाज के स्तर पर भी जीवन के विकास की तीव्रतम गति प्रदान की जा सके। व्यक्ति के जीवन में पूर्णता लाने के लिए एवं राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय प्रशासन में स्वस्थ भोजन एवं स्वस्थ विकासात्मक कृषि विधानों द्वारा पूर्णता लाना ही वैदिक कृषि का प्रयोजन है। वैदिक जैविक कृषि किसानों के लिए, बीजों एवं मृदा के लिए समग्र पोषणीय कृषि विधान है। जैविक कृषि, बीज से वृक्ष और फिर वृक्ष से बीज निर्माण की वैदिक विशुद्ध शाश्वत् ब्रह्म विद्या है, जो सभी किसान अपना सकते हैं और इसके द्वारा प्रत्येक नागरिक को स्वस्थ मन, स्वस्थ शरीर एवं स्वस्थ चेतना का उपहार प्रदान कर सकते हैं जिससे भारत में शांति की स्थापना होगी एवं सभी को एक आदर्श स्वार्गिक जीवन की प्राप्ति होगी ।