स्थापत्य वेद महर्षि वेद विज्ञान एवं तकनीकी के बहुमूल्य विषयों में से एक है । स्थापत्य वेद का उद्गम संस्कृत के ‘स्थापना’ शब्द से है, जिसका अर्थ स्थापना करना है एवं वेद का तात्पर्य ज्ञान से है। महर्षि ने स्थापत्य वेद को इस ज्ञान के रूप में स्थापित किया है कि व्यक्ति स्वयं को कैसे स्थापित करे ताकि व्यक्ति दैनिक जीवन में सदैव प्राकृतिक विधानों के ऊध्र्वगामी सिद्धांतों के अनुरूप जीवन रखे, अपने जीवन में एवं कार्य के पर्यावरण में सदैव पूर्ण स्वास्थ्य, प्रसन्नता एवं सफलता का आनन्द उठाये।
स्थापत्य वेद प्राकृतिक विधानों के अनरूप देश, नगर एवं गृह नियोजन की अति प्राचीन एवं सर्वोच्च प्रणाली है, जो व्यक्तिगत जीवन को समष्टि के साथ जोड़ती है, पृथ्वी पर आदर्श जीवन का निर्माण करती है, जहां प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करे कि ‘मैं स्वर्ग में रह रहा हूं।’ स्थापत्य वेद वह ज्ञान है जो प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त सुव्यवस्थित तरीके से स्थापित करता है ताकि प्रत्येक वस्तु अन्य वस्तु द्वारा पोषित हो । स्थापत्य वेद प्रकृति के सर्वाधिक मूलभूत नियमों का लाभ उठाता है जो पूर्ण स्वास्थ्य, प्रसन्नता, एवं समृद्धि के प्रदायक हैं। यह प्राकृतिक विधानों के अनुरूप घरों एवं कार्यालयों के अभिकल्पन के लिए उचित गणितीय फार्मूला, समीकरणों एवं समानुपातों का उपयोग करता है। स्थापत्य वेद एक मात्रा विज्ञान है जिसके पास स्थल चयन, उचित दिशा, विन्यास, स्थापन एवं कमरों का उनके प्रयोजन के अनुसार नियोजन का सटीक ज्ञान एवं दीर्घकालीन परीक्षित सिद्धांत है ।
एक भवन की दिशा का इसके स्वामियों एवं निवासियों की जीवन गुणवत्ता पर नाटकीय प्रभाव होता है । सूर्य की ऊर्जा उदय के समय अत्यन्त पोषणकारी होती है जब पूर्व दिशा वाले घर अथवा भवन उनके निवासियों के लिए स्वास्थ्य एवं सफलता का वृहत लाभ प्रदान करते हैं । मानव मस्तिष्क दिशा के प्रति संवेदनशील होता है एवं उदय होते सूर्य के प्रभाव के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया करता है । जब व्यक्ति पूर्व की ओर मुख करता है, तब मस्तिष्क, जब व्यक्ति उत्तर, दक्षिण अथवा पश्चिम की ओर मुख करता है, की तुलना में भिन्न रूप से कार्य करता है । घरों एवं भवनों में शुभ प्रभाव लाने के लिये जैसे उत्तम स्वास्थ्य, समृद्धि एवं परिपूर्णता लाने के लिए उचित दिशाओं के साथ, उचित ताल-मेल करके निर्मित किया जाना चाहिए । पूर्व में प्रवेश वाले भवन विशेष रूप से अत्यन्त शुभ प्रभाव लाते हैं । अन्य दिशाओं वाले घर भय, गरीबी, समस्याएं, असफलता एवं गंभीर रोगों का प्रभाव लाते हैं ।
सूर्य में आकाश में गतिमान होते समय ऊर्जा की विभिन्न विशेषताएं होती हैं। घरों का निर्माण इस तरह से किया जाना चाहिए ताकि विभिन्न गतिविधियाँ जिसे हम एक घर के विभिन्न कमरों के अंदर निष्पादित करते हैं, सूर्य की उपयुक्त विशेषता के ताल-मेल में हो । पृथ्वी पर प्राकृतिक विधान का सर्वोच्च प्रभाव सूर्य से आता है । जैसे ही सूर्य आकाश में गतिमान होता है, यह ऊर्जा की विभिन्न विशेषताएं उत्पन्न करता है । घरों का निर्माण इस प्रकार से किया जाना चाहिए, जिससे सूर्य की विभिन्न ऊर्जाएं प्रत्येक कक्ष में विशिष्ट कार्य एवं गतिविधि के लिये उचित हो एवं प्राकृतिक विधान हमारी नित्य क्रिया के प्रत्येक क्षेत्र का समर्थन करे। भवनों को स्थानीय जलवायुवीय स्थितियों के अनुकूल उपयुक्त प्राकृतिक, गैर-हानिकारक सामग्रियों से निर्मित किया जाना चाहिए । इसमें उपयोग की जाने वाले सामग्री जैसे-लकड़ी, ईंट के साथ-साथ प्राकृतिक साज-सज्जा जैसे कि चूना, संगमरमर, सिरेमिक टाइल, कारपेट के लिए स्वाभाविक रेशे, पर्दे एवं फर्नीचर, स्वाभाविक, गैर हानिकारक पेन्ट एवं गोंद इत्यादि शामिल हैं।
घर अथवा भवन का निर्माण करने के लिए कई अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार किया जाता है, जैसे कि-भूमि का स्थान, ढलान एवं भूमि की आकृति, भूमि पर प्रवेश, ऊगते सूर्य के सामने बाधा, निकटवर्ती जल इकाई, भूमि तक शुभ पहुँच मार्ग, उचित दिशा से प्रवेश, भवन निर्माण का शुभ समय इत्यादि ।
यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि घर अथवा भवन का वास्तु के अनुरूप उचित परिकल्पन हो । एक योग्य एवं प्रशिक्षित स्थापित (वैदिक वास्तुविद) को घर अथवा भवन के वास्तु का परिकल्पना तैयार करनी चाहिए ।
वैदिक वास्तु को अनुभव करने से तात्पर्य वास्तुविद एवं भवन निर्माता की वैदिक चेतना को विकसित करना है एवं स्थापत्य वेद में निहित माप एवं फार्मूलों को उपयोग में लाना है, जो प्राकृतिक विधानों के अनुसार वास्तु के सिद्धांत एवं कार्यक्रम प्रदान करते हैं-जिनके अनुसरण में सृष्टि की अनंत संरचना निर्मित की गयी है ।
वैदिक वास्तु पूर्णता से उद्भूत होते हुए पूर्णता के सिद्धांत का अनुसरण करती है, जो स्थापत्य वेद की प्रक्रियाओं में उद्धृत है, जहां प्रथम चरण भूमि और भवन में ब्रह्मस्थान भूमि का भवन का केन्द्र बिन्दु को स्थापित करना है। भूमि अथवा भवन का केन्द्र बिन्दु-संपूर्णता, पूर्णता का स्थान होता है और इसी के संदर्भ में भवन की संरचना विस्तारित होती है संरचना के केन्द्र बिंदु से, पूर्णता की अभिव्यक्ति-पूर्णता विस्तारित होती है ।
यदि घरों, ग्रामों एवं नगरों का निर्माण वास्तु, स्थापत्य वेद की वैदिक प्रणाली पर आधारित नहीं है, तो वास्तु का गैर-पोषणकारी प्रभाव जीवन में कई अवांक्षित एवं नकारात्मक स्थितियों का कारण बनेगा। वैदिक वास्तु भवन निर्माण प्राकृतिक विधानों पर आधारित प्रणाली है जो सहजरूप से भवन एवं इसमें रहने वाले लोगों को सृष्टि के साथ सामन्जस्य स्थापित रखती है । स्थापत्य वेद का सिद्धांत किसी भवन, किसी ग्राम, किसी नगर, किसी देश को सृष्टि के साथ सामन्जस्य स्थापित करके रखना है अर्थात् प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक अन्य वस्तु के साथ सामन्जस्यता को भी संधारित करना । जो भवन स्थापत्य वेद के अनुसार निर्मित होते हैं, वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए अत्यन्त सुखकर, मनोबल ऊपर रखने वाले एवं विकासवान होते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति समष्टि का ही प्रतिरूप है। मानव शरीर की रचना व कार्य प्रणली समष्टि की रचना और कार्य प्रणाली का ही प्रतिरूप है क्योंकि दोनों ही प्रकृति के नियमों द्वारा ही निर्मित है-अणोरणियान एवं महतो-महीयान। सृष्टि के प्रत्येक कण की चेतना संपूर्ण ब्रह्माण्ड के ताल-मेल में है एवं इस प्रकार से सतत-विस्तारित सृष्टि की अनंत विविधता चेतना की एक एकीकृत संपूर्णता द्वारा धारित होती है ।
सत्य यह है कि व्यक्ति दोनों स्तर पर-बुद्धिमत्ता के स्तर पर चेतना के स्तर पर एवं उसके शरीर के स्तर पर भी समष्टि रूप ही है, जो उसकी चेतना अथवा बुद्धिमत्ता की अभिव्यक्ति है। व्यक्ति के इस समष्टि रूप होने के कारण से, व्यक्ति के उसके स्वयं के अंदर से शांति एवं समन्वय में होने के लिए, सबकुछ सृष्टि के समन्वय में होना चाहिए । यह आवश्यक है कि प्रत्येक वस्तु जिसके साथ वह जुड़ा है, अथवा कोई भी वस्तु जो उसके पर्यावरण में है, ब्रह्माण्डीय संरचना के साथ एवं ब्रह्माण्डीय बुद्धिमत्ता के पूर्णतया गठबंधन एवं समन्वय में हो ।
स्थापत्य वेद के सिद्धांत वैदिक साहित्य के 40 क्षेत्रों प्रकृति के नियमों के 40 संरचनात्मक गतिमानों की पुष्टि करते हैं एवं इस प्रकार से घर या भवन जो स्थापत्य वेद के अनुसार निर्मित हुए हों, सतत् विस्तारित सृष्टि के संरचनात्मक गतिमानों के साथ ताल-मेल में होने से व्यक्ति एवं समाज के जीवन में समन्वय एवं स्थिरता का प्रभाव निर्मित करते हैं।
यह आवश्यक है कि व्यक्ति से संबंधित प्रत्येक वस्तु अपने पर्यावरण में ब्रह्माण्डीय सामन्जस्य में स्थापित करें इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु को स्थापत्य वेद के अनुसरण में होना चाहिए-प्रत्येक भवन को प्राकृतिक विधानों के अनुसार निर्मित किया जाना चाहिए-प्रत्येक वस्तु को वैदिक होना चाहिए ।
भारत का भारतीयकरण-वास्तु के अनुसार घरों एवं नगरों का पुनर्निर्माण वैदिक जीवन की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता है, जो समस्याओं के निवारण, रोगों एवं कष्टों के समाधान में बड़ा योगदान करती है, इसके द्वारा राष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों की बचत भी होगी जो सामान्यतः समस्याओं के समाधान में व्यय किये जाते हैं ।
राष्ट्रीय वित्तीय संसाधनों की एक बड़ी मात्राा विद्यमान नगरों एवं भवनों के अशुभ वास्तु के कारण उत्पन्न सामाजिक समस्याओं के निराकरण में व्यय की जाती हैं ।
यह सुझाव दिया जाता है कि भारत सरकार वैदिक वास्तु के द्वारा भारत के पुनर्निर्माण के लिए शीघ्रता से नवीन नियम बनाये एवं इस पीढ़ी में एवं समस्त भावी पीढि़यों में समस्याओं के मूल आधार को समाप्त करने के लिए प्राकृतिक विधानों का प्रत्यक्ष रूप से समर्थन एवं सहयोग प्राप्त करे ।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि स्थापत्य वेद सहित वैदिक साहित्य में निहित ज्ञान आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगों की तुलना में अधिक उन्नत, पूर्णतः, वैज्ञानिक, प्रामाणिक एवं विश्वसनीय है । आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोग की उनकी वस्तुनिष्ठ पद्धति द्वारा केवल भौतिक, पदार्थीय मूल्यों पर ही ध्यान दे सकते हैं, जो इसके अपने स्तर पर बुद्धिमत्ता के अधिक मूलभूत निष्पादन को प्रत्यक्षरूप से नहीं माप कर सकते। प्राकृतिक विधान के उस स्तर को जहां प्राकृतिक विधानों की समग्रता है एवं प्राकृतिक विधान की विशेषतायें एक साथ कार्यशील होती हैं आधुनिक प्रयोग उसका मापन नहीं कर सकते।