वैदिक अर्थव्यवस्था को प्राप्त करने से तात्पर्य व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चेतना में वैदिक चेतना को विकसित करना है ताकि लोगों की सृजनात्मकता को प्राकृतिक विधान की अनंत संगठनात्मक शक्ति की अनंत सृजनात्मकता द्वारा समर्थन प्राप्त हो । वैदिक अर्थव्यवस्था वेद की पूर्ण सृजनात्मक सामथ्र्य-प्राकृतिक विधान की अनंत संगठन शक्ति का प्रकृति के नियमों को जीवंत करने के लिए उपयोग करें जो व्यक्तिगत क्रिया को प्रारंभ करती है एवं ब्रह्माण्डीय क्रिया के प्रकाश में व्यक्तिगत क्रिया को सहजरूपेण धारण करती है ।
प्राकृतिक विधानों के अनुसरण में व्यक्तिगत क्रिया से तात्पर्य है कि अर्थव्यवस्था दोनों स्तरों पर, व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय, सुव्यवस्था की प्रचुरता का आनंद उठायेगी, जो अनंत विविधता के मध्य में सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए उत्तरदायी है । यह वह ब्रह्माण्डीय लेखांकन प्रणाली है जो ग्रहों, नक्षत्राों, एवं आकाशगंगाओं की गतिविधियों का क्षण प्रति क्षण लेखांकन करते हुए-सृष्टि में प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक अन्य वस्तु के साथ समन्वित संबंधों को सहजरूपेण धारित एवं संगठित करती है ।
यह वैदिक अर्थव्यवस्था है, जो अनंत संतुलन शक्ति से पूरित है, जो सृष्टि में वैदिक सुव्यवस्था-मूर्त सुव्यवस्था में बनाये रखती है, प्रत्येक वस्तु के विकास को संधारित करते हुए एवं स्थायी विकास में सृष्टि के प्रयोजन को परिपूर्ण करती है । यह वैदिक अर्थव्यवस्था है, जो सबको विकास प्रदान करती है ।
एक आर्थिक प्रणाली उपयोग रहित है, यदि यह मनुष्य को उसकी आर्थिक अवस्था के परे संतुष्टि प्रदान करने में समर्थ न हो । व्यक्तिगत स्तर पर अर्थव्यवस्था के मूल्य को, ब्रह्माण्डीय स्तर पर प्राकृतिक विधान की अर्थव्यवस्था के तालमेल में लाना वैदिक अर्थव्यवस्था का प्रयोजन है । यह व्यक्तिगत स्तर पर प्राकृतिक विधानों की बढ़ती अर्थव्यवस्था का प्रयोजन है । यह व्यक्तिगत स्तर पर प्राकृतिक विधान की बढ़ती अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने के लिए ब्रह्माण्डीय स्तर पर प्राकृतिक विधानों की असीम अर्थव्यवस्था के साथ गठजोड़ करता है-यह ब्रह्माण्डीय स्तर पर अनंत अर्थव्यवस्था के सर्वोच्च शक्तिपूर्ण तत्वों के साथ व्यक्तिगत स्तर पर बढ़ती अर्थव्यवस्था को स्थिर करता है ।
ब्रह्माण्डीय अर्थव्यवस्था गतिशलता की पूर्णता एवं शांति की पूर्णता द्वारा विशेषीकृत होती है, इसकी गतिशील प्रकृति इसके मूल में स्थिर, शांत क्षेत्र से कभी भी पृथक नहीं होती । इसका तात्पर्य है कि अर्थव्यवस्था की शांत स्थिरता सदैव अर्थव्यवस्था की गतिशील प्रगति को धारित करती है । अर्थव्यवस्था चेतना का प्रदर्शन है । यदि अर्थशास्त्राी की चेतना में वह संतुलन नहीं होगा, जो शांति के साथ गतिशीलता को भी संतुलित करता है, जैसा कि ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ वाक्यांश में वर्णित है, तो इसमें वह वैदिक विशेषता नहीं होगी-द्धषि, देवता, छन्दस की संहिता वाला गुण-अध्यात्म, अधिदैव, अधिभूत की एकीकृत विशेषता-गतिशीलता को धारित करती शांति-शांति एवं गतिशीलता एक साथ-जीवंत पूर्णता का गुण नहीं होगा । इसीलिए अर्थव्यवस्था संतुलित नहीं होगी अर्थव्यवस्था की गतिशीलता सदैव अर्थशास्त्राी को बाजार से बाहर कर देगी-उसमें उसके निपटान पर ऊर्जा एवं बुद्धिमत्ता का अनंत भंडार नहीं होगा । यह समुद्र की एक लहर की गतिशीलता के समान है जो सागर से संबद्ध नहीं है किसी बिन्दु पर जब लहर की उच्च तरंग सागर से असंबद्ध हो जाती है, तब यह टूट जाती है एवं नीचे गिर जाती है ।
प्रगति के लिए सागर में उठती लहर एवं इसके स्थिर आधार के मध्य संतुलन बना रहना चाहिए । अर्थव्यवस्था को वास्तव में प्रगतिशील, स्थिर एवं कभी न गिरने देने के लिए यह आवश्यक है कि अर्थशास्त्राी की चेतना अथवा बुद्धिमत्ता गतिशीलता एवं शांति के मध्य संतुलन की विशेषता को बनाये रखे ।
वैदिक अर्थव्यवस्था का यह मूल्य आधुनिक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सामान्यतया अनुपलब्ध है, जो गतिशीलता आधारित है, शांति में कोई आधार के बिना यह केवल एक मुद्रा आधारित अर्थव्यवस्था, करेंसी आधारित अर्थव्यवस्था है एवं जब हम विश्व अर्थव्यवस्था पर विचार करते हैं, तो यह विविधता आधारित अर्थव्यवस्था है-यह मुद्राओं में विभिन्नताओं द्वारा प्रभावित है, एवं मुद्राओं के मध्य संबंधों में ऊंची-नीची दरों द्वारा प्रभावित होती है ।
प्रत्येक देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मुद्राओं में विभिन्नताओं द्वारा प्रभावित है, एवं मुद्राओं के मध्य संबंधों में ऊंची-नीची दरों द्वारा प्रभावित होती है ।
देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था सतत रूप से अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय नियंत्रणों एवं मुद्रा के उतार चढ़ाव के आधीन है-राष्ट्रीय मुद्रा में अस्थिरता होती है, जो राष्ट्रीय मुद्रा नियंत्रणों में परिणत होता है, जो प्रत्येक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को हिला देती है । आज ऐसा कोई देश नहीं है, जिसके पास एक स्वतंत्रा, सर्वसमर्थ अर्थव्यवस्था हो प्रत्येक अर्थव्यवस्था किसी अन्य देश की अर्थव्यवस्था पर निर्भर है-प्रत्येक अर्थव्यवस्था किसी अन्य देश की अर्थव्यवस्था द्वारा उछाली जाती है एवं यह किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक मूर्त त्राासदी है । परिणाम यह है कि आज किसी भी देश के पास इसकी विकासात्मक योजनाओं के लिए पर्याप्त मुद्रा नहीं है प्रत्येक देश में गरीबी व्याप्त है प्रत्येक देश में दुख व्याप्त है । आज संसार में कोई देश ऐसा नहीं है, जो आर्थिक सर्वसमर्थता का आनंद लेता हो ।
जब व्यक्ति सृष्टि की वृहत, स्वाभाविक रूप से संतुलित अर्थव्यवस्था पर प्राकृतिक विधानों की अर्थव्यवस्था पर विचार करता है एवं तब किसी देश की अर्थव्यवस्था की अत्यन्त निम्न अवस्था पर विचार करता है, तो यह स्पष्ट है कि किसी भी देश के पास वैदिक अर्थव्यवस्था का लाभ नहीं है-किसी भी देश के पास वैदिक अर्थव्यवस्था का ज्ञान एवं तकनीकी नहीं है-एवं इसीलिए किसी भी देश के पास अपने संसाधनों को अधिकतम करने एवं स्वाभाविक रूप से सर्वसमर्थता तक ऊपर उठने की संगठनात्मक शक्ति नहीं है ।
वैदिक अर्थव्यवस्था ‘न्यूनतम कार्य के सिद्धांत’ द्वारा समस्त संभावनाओं के क्षेत्र से निष्पादन करते हुए कार्यशील होती है-सृजनात्मक शांति के क्षेत्र से, जहां प्राकृतिक विधान की अनंत संगठनात्मक शक्ति अनंत रूप से पूर्णतया जागृत है-जहां बुद्धिमत्ता का अविरल, अबाध प्रवाह बिना तनाव के प्रगति में परिणत होता है । वैदिक अर्थव्यवस्था ‘कम से कम कार्य करने एवं अधिकाधिक परिणाम प्राप्त करने’ के सिद्धांत द्वारा विकास करती है, जिससे तात्पर्य न्यूनतम प्रयास में अधिकतम प्राप्ति करना है ।
अर्थव्यवस्था विज्ञान सम्मत सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए एवं इसके लिए इसे वैदिक होना चाहिए, क्योंकि वैदिक विज्ञान आधुनिक विज्ञान का मूल स्रोत है । आधुनिक अर्थव्यवस्था का सिद्धांत वास्तव में मितव्ययी नहीं है । क्या यह अर्थव्यवस्था उपर्युक्त है जो धनी एवं निर्धन दोनों को सम्पत्ति की सतत खोज में संलिप्त करती है । अर्थव्यवस्था की यह विशेषता किसी भी व्यक्ति के लिए लाभदायक नहीं है । अर्थव्यवस्था के विद्यमान सिद्धांतों एवं कार्यक्रमों को वैदिक अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों का समर्थन प्राप्त होना चाहिए-अर्थशास्त्राी की चेतना को प्राकृतिक विधानों की अनंत संगठनात्मक शक्ति की शांत गतिशीलता के संतुलित अवस्था द्वारा समर्थन प्राप्त हो ।
वैदिक अर्थव्यवस्था से तात्पर्य समस्याओं से निवारण, कष्टों से निवारण, किसी भी दुर्बलताओं से निवारण है । अर्थव्यवस्था का लक्ष्य किसी भी प्रकार की दुर्बलताओं से मुक्ति है, एवं यह वैदिक शिक्षा द्वारा सम्भव है, जो ज्ञान द्वारा शिक्षा है पूर्ण ज्ञान द्वारा शिक्षा है । वैदिक अर्थव्यवस्था के पूर्ण मूल्य का आनंद लेने से तात्पर्य वैदिक शिक्षा, वैदिक स्वास्थ्य उपचार, वैदिक प्रशासन, वैदिक सुरक्षा, वैदिक उद्योग, एवं वैदिक कृषि द्वारा वैदिक चेतना को विकसित करना है । आधुनिक अर्थव्यवस्था इस मानदंड को पूर्ण नहीं करती एवं यही कारण है कि यह अकुशल है यह न तो स्थिर है एवं न ही किसी व्यक्ति के लिए संतुष्टिदायक है ।
वैदिक अर्थव्यवस्था की, एक संतुलित विश्व अर्थव्यवस्था निर्मित करने के लिए प्रत्येक देश में बहुत आवश्यकता है, क्योंकि संसार में विद्यमान अर्थव्यवस्था के सिद्धांत एवं प्रणालियां विश्व अर्थव्यवस्था को अत्यन्त अस्थिर, ऊपर-नीचे जाने वाली बनाते हैं एवं राष्ट्रों के मंडल में शांति एवं समन्वय को क्षति पहुँचाते हैं । प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था की स्वांस किसी अन्य देश की अर्थव्यवस्था की उधार ली गयी स्वांस है, क्योंकि प्रत्येक देश किसी अन्य देश के कर्ज में डूबा है । किसी भी एक अर्थव्यवस्था का डूबता जहाज कई अर्थव्यवस्थाओं का डूबता जहाज है । आज संसार में कोई भी अर्थव्यवस्था अपने पैरों पर नहीं खड़ी है, वह जल्दी अथवा देर से किसी अन्य देशों की आर्थिक उथल-पुथल द्वारा गिरा दिये जाने के अंदेशे से भयभीत है । यही स्थिति भारतीय-अर्थव्यवस्था की भी है । भारत अपनी अर्थव्यवस्था को एक आदर्श अर्थव्यवस्था में-वैदिक अर्थव्यवस्था में रूपांतरित कर सकता है एवं विश्व अर्थव्यवस्था के लिए प्रकाश पुंज बन सकता है ।
वैदिक अर्थव्यवस्था से तात्पर्य विकास के प्रत्येक स्तर पर सर्वसमर्थता से है, क्योंकि प्रत्येक स्तर का नवीनीकरण प्राकृतिक विधान की पूर्ण सृजनात्मक सामथ्र्य द्वारा सहजरूपेण धारित किया जाता है । सर्वसमर्थता की इस विषय वस्तु को प्रशासन के स्तर पर साकार किया जायेगा-राष्ट्रीय स्तर, राज्य स्तर, जिला स्तर एवं पंचायत स्तर पर प्रशासन को आर्थिक सर्वसमर्थता में स्थापित किया जायेगा ।
वैदिक अर्थव्यवस्था सम्पत्ति के स्रोत को प्रदान करती है-यह सम्पत्ति के क्षेत्र एवं संपत्ति के लक्ष्य को भी लाती है यह एक अनंत अर्थव्यवस्था की प्रणाली है, जो प्रत्येक राष्ट्र की स्वतंत्रता एवं संप्रभुता को बनाये रखेगी । वैदिक अर्थव्यवस्था से तात्पर्य है कि प्रत्येक अर्थशास्त्राी के पास एक संतुलित मन एवं एक संतुलित बुद्धि हो ।
अर्थव्यवस्था के वैदिक सिद्धांत, शासकीय प्रशासन के समस्त स्तरों-विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों एवं औद्योगिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में प्रारंभ करने से भारत के प्रत्येक नागरिक को आर्थिक सर्वसमर्थता प्राप्त होगी । अर्थव्यवस्था की वैदिक विषय वस्तु भारत के प्रत्येक राज्य के लिए आर्थिक सर्वसमर्थता हेतु सुविधा प्रदान करेगी, क्योंकि जब प्रत्येक राज्य इसकी अपनी अर्थव्यवस्था का निर्वहन करेगा तो राज्य की प्रगति में वृद्धि होगी एवं स्थानीय स्तर पर अधिक प्रभावशीलता से प्रत्येक राज्य में जीवन की गुणवत्ता ऊपर उठेगी ।
वैदिक अर्थव्यवस्था से कराधान न्यूनतम होगा। राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक सर्वसमर्थ आर्थिक संरचना होगी, जिसके लिए कराधान के न्यूनतम समर्थन की आवश्यकता होगी ।
भारत में जीवन को शांति, प्रसन्नता, एवं सतत प्रगति में बने रहने के लिए वैदिक अर्थव्यवस्था एकमात्र समाधान है, इसीलिये इसे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की विषयवस्तु में शामिल किया जाना चाहिए ।